अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम केन्द्रीय कार्यकारी मंडल बैठक संपन्न
All India Vanvasi Kalyan Ashram Central Executive Board meeting concluded
दिनांक 23 फरवरी, 2023
MP मध्यप्रदेश उज्जैन में पारित प्रस्ताव |
*प्रस्ताव संख्या: 7 नयी जातियों को अनुसूचित जनजातियों की सूची में जोड़ने में कानून निर्धारित मापदंडों एवं प्रक्रिया का कड़ाई से पालन किया जाए।*
भारत के संविधान का अनुच्छेद 366 (25) अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करता है: “अनुसूचित जनजातियों का अर्थ ऐसी जनजातियों या जनजातीय समुदायों के अंदर कुछ वर्गों या समूहों से है, जिन्हें इस संविधान के उद्देश्यों के लिये संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत “अनुसूचित जनजाति” माना जाता है।”
अनुच्छेद 342 (1) में इस कार्य की प्रक्रिया निर्धारित हुई है: राष्ट्रपति किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में तथा जहाँ यह एक राज्य है, वहाँ के राज्यपाल के परामर्श के बाद एक सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा उस राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के संबंध में जनजातियों या जनजातीय समुदाय या उनके समूहों को अनुसूचित जनजाति के रूप में निर्दिष्ट कर सकता है। राष्ट्रपतिजी द्वारा संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 से पहली बार देश के विभिन्न
प्रदेशों के अनुसूचित जनजातियों की सूची को मान्यता मिली। 1950 के बाद ST सूची में शामिल करने की प्रक्रिया:
जनजातियों को ST की सूची में शामिल करने की प्रक्रिया संबंधित राज्य सरकारों की सिफारिश से शुरू होती है जिसे बाद में जनजातीय मामलों के मंत्रालय को भेजा जाता है जो समीक्षा करता है और उस पर सहमति लेने के लिये भारत के महापंजीयक (RGI) एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (National Commission for Scheduled Tribes NCST) को प्रेषित करता है। इन दोनों की सहमति के बाद ही यह प्रस्ताव केबिनेट के पास जाता है जो इन प्रस्तावों को सांसद के दोनों सदनों में रखती है। अनुच्छेद 342 (2) के अनुसार 1950 के बाद संसद ही इस पर अंतिम निर्णय करती है।
किसी भी नए समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में सम्मिलित करने के लिए भारत के महापंजीयक (RGI) एवं जनजाति आयोग को लोकुर समिति, 1965 द्वारा निर्धारित मापदंडों का पालन करना पड़ता है। ये निर्धारित मापदंड हैं:- आदिम लक्षणों के संकेत, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, व्यापक अन्य समुदायों के साथ संपर्क में संकोच और सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ापन ।
ऐसे सभी प्रावधान होने के बावजूद भी 1970 के बाद ऐसा ध्यान में आता है कि तात्कालिक राजनैतिक लाभ के कारण और दबंग समाज के दबाव में निर्धारित मापदंडों को दरकिनार करते हुए अनेक विकसित, संपन्न एवं ऐसी ही अन्य जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में समाविष्ट किया जा रहा है। जिन जातियों को अनेक बार भारत के महापंजीयक एवं जनजाति आयोग ने अनुसूचित जनजातियों में समाहित करने हेतु नकार दिया या विपरीत राय दी, राज्यों के जनजाति शोध संस्थानों ने भी लोकुर कमिटी के मापदंडों के अनुसार अनुसूचित जनजातियों में जोड़ने हेतु नकार दिया, ऐसी जातियां आजादी के 75 वर्ष के बाद अचानक कैसे सामाजिक-आर्थिक पिछड़ी मानकर जनजाति की सूची मैं जुड़ जाती हैं? RGI, TRI, NCST जैसी शासकीय, संवैधानिक संस्थाएं अपनी रिपोर्ट कैसे बदल देती है- यह समझ के परे है। ऐसे सारे मापदंड पूरे किए बिना एवं नियमानुसार प्रक्रिया पूर्ण होने के पूर्व ही अनुसूचित जनजातियों में समाविष्ट करने की राजनैतिक घोषणा भी हो जाती है !
केवल विशिष्ठ रीति-रिवाज़ या अलग बोली-भाषा होने मात्र से किसी जाति या समूह को अनुसूचित जनजातियों की सूची में समाविष्ट नहीं करना चाहिए बल्कि लोकूर समिति की उपरोक्त सभी पांचों मापदंडों का पूरा होना आवश्यक है। अन्यथा जिस उद्देश्य से भारत के संविधान में अनुसूचित जनजातियों की अनुसूची अनुसूचित जातियों, घुमंतू जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियाँ इन सब से अलग बनाई है उसका कोई मतलब नहीं रहेगा।
इस कारण आज अनेक अन्य जातियां अपने को अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित करने की होड़ में लगी हैं। ऐसे में सही अर्थ में जो अनुसूचित जनजातियां हैं उनकी नौकरियाँ एवं उच्च शिक्षा हेतु प्रवेश का आरक्षण तो प्रभावित होता ही है, साथ ही ऐसी संकोची स्वभाव की, सामाजिक- आर्थिक पिछड़ापन रखने वाली, भौगोलिक अलगाव (आइसोलेशन) में बसी जनजातियों की भूमि भी अन्य प्रभावी जातियां, अनुसूचित जनजातियों की सूची में आकर खरीद रही हैं; परिणाम स्वरूप देश के अनेक जनजाति क्षेत्रों में असंतोष, अशांति और आक्रोश के वातावरण का निर्माण होरहा है. इसके उदाहरण हम अनेक राज्यों में देख सकते हैं।
इसी से जुड़ा दूसरा विषय है 1950 के बाद नई नई जातियों को अनुसूची में जोड़ने से जनजातियों की जनसँख्या में जो वृद्धि हुई है, हो रही है उसके अनुसार अनुसूचित जनजातियों को केंद्र एवं राज्यों में मिलनेवाला आरक्षण भी बढाया जाए, पर यह तो हो नहीं रहा।
इसलिए अ.भा. वनवासी कल्याण आश्रम का केंद्रीय कार्यकारी मंडल केंद्र सरकार से यह मांग करता है कि नई नई जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में जोड़ते समय उपरोक्त सभी पहलुओं का ध्यान रखे। कार्यकारी मंडल जनजाति समाज का, विशेषकर उसके सामाजिक-राजनितिक नेताओं, निर्वाचित जन प्रतिनिधियों और युवाओं का आह्वान करता है कि वे इस बारे में जागृत रहें, समाज में जन जागरण करते हुए सरकारों पर दबाव बनाते हुए संविधान सम्मत सभी मार्गों से इसका विरोध करें। इसीसे उनके संवैधानिक अधिकार भी सुरक्षित रहेंगे और जनजाति क्षेत्र में आक्रोश व अशांति दूर होगी जोकि किसी भी देश के विकास के लिए आवश्यक है।